Pages

Tuesday 31 March 2015

करगिल युद्ध की पूरी कहानी !!

करगिल युद्ध।

26 जुलाई 1999 को करगिल पर विजय के हमारी भारतीय 14 साल पूरे हो गए हैं। ठीक चौदह साल पहले भारतीय सेना ने पाकिस्तान के फरेब का करारा जवाब देते हुए उसे धूल चटा दी थी। वरिष्ठ पत्रकार प्रभात शुंगलू उन चुनिंदा रिपोर्टरों में से एक हैं, जिन्होंने करगिल की जंग को कवर किया था। तीन साल पहले करगिल युद्ध के दस साल पूरे होने पर प्रभात शुंगलू ने एक बार फिर उन दिनों को याद किया। 

गुस्ताखी माफ! इतने शरीफ भी नहीं नवाज। ……… 

यकीन हो तो करगिल की करतूत पढ़ लोगोलियों और बम धमाकों की आवाज के बीच मैं 20 जून 1999 को करगिल पहुंचा। इस वक्त तक करगिल में जंग अपने चरम पर थी। पूरा शहर दिन हो रात धमाके की आवाज से गूंज रहा था। इसके बावजूद शहर और आसपास के गांवों में एक खौफनाक सन्नाटा पसरा रहता था। हवा में बारूद की एक अजीब-सी गंध छाई रहती। करगिल के मुख्य बाजार में मेरे सामने था एनएच वन। वो रास्ता जो सीधा जंग के मैदान की ओर जा रहा था। यही एनएच-वन पाकिस्तान की नजरों में किरकिरी बना हुआ था। एनएच वन को तोड़कर उस पर कब्जा जमाकर पाकिस्तान कश्मीर और लद्दाख को भारत से अलग कर देना चाहता था। करगिल शहर से निकलते ही द्रास की तरफ बढ़ने पर पचास मीटर लंबी और दस मीटर ऊंची एक दीवार दिखाई देती है। इसे कहा जाता है करगिल वॉल। ये दीवार इस बात की गवाह थी कि दुश्मन कितना नजदीक है। ये दीवार इसलिए बनाई गई थी कि कोई पाकिस्तानी गोलियों का सीधा शिकार बने। मैंने खुद देखा कि करगिल वॉल गोलियों के निशान से कितनी बुरी तरह छलनी थी।

जंग के मैदान में मेरा दूसरा दिन था। मैं द्रास से करगिल लौट रहा था। उसी वक्त हमारी गाड़ी को निशाना बनाते हुए पाकिस्तानी फौज ने एक गोला दागा। ये गोला हमारी गाड़ी के ठीक पीछे गिरा। मुझे एक झटके में एहसास हो चुका था कि जंग का मैदान कहते किसे हैं। धमाके की आवाज के साथ मेरी और साथी कैमरामैन की रूह कांप गई थी। लेकिन आगे बढ़ते रहना हमारी मजबूरी थी और जरूरत भी। एनएच वन पर चलते हुए ही करगिल से 60 किलोमीटर दूर द्रास पड़ता है और द्रास ही वो जगह थी जहां असली जंग लड़ी जा रही थी। इसी हाईवे पर चलते हुए मुझे नजर आए तमाम जले हुए ट्रक।

ये 4 काम पाकिस्तान में कोई नहीं कर सका, क्या नवाज कर पाएंगे?
इन ट्रकों को पाकिस्तानी फौज ने धमाका कर उड़ा दिया था। पास से गुजरने पर इंसानी शरीर और बारूद के जलने की अजीब-सी गंध हमारी सांसों में भर जाती। हम जानते थे कि हाई वे से गुजर रही नदी के पार जो पहाड़ दिख रहे हैं उसके कई प्वाइंट्स पर पाकिस्तानी फौज कब्जा कर चुकी है। यहां पाक फौज के जवान दिन-रात मुस्तैदी से डटे रहते थे। इन जगहों से वो एनएच वन पर होने वाले हर मूवमेंट पर नजर रख रहे थे। पल-पल की जानकारी पाकिस्तान आर्टिलरी की टुकड़ी को दी जा रही थी। नतीजा ये कि वहां से निशाना साधकर गोला मारा जाता था। ये हाईवे कितना खतरनाक और कितना जरूरी था ये मुझे समझ चुका था। सेना के एक अधिकारी ने मुझे बताया कि हाई वे का कुल आठ किलोमीटर का हिस्सा सीधे पाकिस्तानी फायरिंग रेंज में आता है। ये वो हिस्सा था जहां से पाकिस्तानी फौज हमें साफ देख रही थी। हम पर निशाना साध रही थी। इस आठ किलोमीटर को पार करना किसी अग्निपथ से कम नहीं था लेकिन द्रास पहुंचने के लिए ये रास्ता पार करना बहुत जरूरी था।
एक बार इसी रास्ते से गुजरते हुए हमारी गाड़ी का टायर पंचर हो गया। हमने ड्राइवर को बोला कि वो गाड़ी आगे बढ़ाता रहे लेकिन ड्राइवर ऐसा कर नहीं पाया। मजबूरन टायर बदलने के लिए गाड़ी रोकी। हम टायर बदल ही रहे थे कि एक मोर्टार हमारे पास आकर गिरा। करीब 10 मीटर दूर उस जगह पर बड़ा सा गड्ढा हो चुका था। जंग के मैदान में होने का मतलब क्या होता है ये हमारे सामने था। मोर्टार के कुछ टुकड़े छिटककर हमारी गाड़ी पर भी लगे। हम बिना वक्त गंवाए गाड़ी वहीं छोड़कर उस जगह से दूर दौड़ पड़े। करगिल से द्रास पहुंचने का सफर इसी तरह धमाकों से बच-बचकर खत्म हुआ। द्रास में पहाड़ियों के कई ऐसे प्वाइंट्स थे जो इस वक्त भी पाकिस्तान के कब्जे में थे। प्वाइंट 4950, 4150, 5353, 5280, टाइगर हिल भारतीय फौज एक-एक करके इन प्वाइंट्स के लिए लड़ाई लड़ रही थी। जब मैं द्रास पहुंचा तो देखा कि पहाड़ियों पर सिर्फ धुआं ही धुआं नजर रहा है यानी लगातार बमबारी हो रही थी। गोलों की आवाज से द्रास की पहाड़ियां हर वक्त गूंजती रहती थीं। सबसे खतरनाक लड़ाई लड़ी गई प्वाइंट 4950 के लिए।
उन पहाड़ियों पर गिरते हुए बम और तोप के गोलों की आवाज रिकॉर्ड करना बेहद खतरनाक था। ये डर हमेशा बना रहता था कि कभी भी एक गोला आपके आसपास या फिर आप पर गिर सकता है और आप खुद एक खबर बन सकते हैं। तोप और गोलों की आवाज के बीच आकाश में अक्सर हेलिकॉप्टर भी नजर आते थे। इन हेलिकॉप्टरों में भरकर घायल भारतीय फौजी बेस कैंप हॉस्पिटल ले जाए जा रहे थे। हम सिर्फ अंदाजा लगा सकते थे कि पहाड़ियों पर कितनी घमासान लड़ाई चल रही थी। दूर से हमें मिग 29 फाइटर प्लेन की आवाज आती थी। तेजी से आते विमान पलक झपकते ही हमारी आंखों के सामने आसमान में गायब हो जाते और फिर आती थी बम गिरने की भयानक आवाजें। सेना में जंग जीतने का जज्बा कुछ ऐसा था जूनियर ऑफिसर अपने सीनियरों से लड़ाई की असली जगह पर जाने की जिद करते रहते थे। मैंने देखा एक नौजवान मेजर जो 9 दिन से लगातार फ्रंट पर था और कुछ ही देर पहले आराम के लिए लौटा था। उसके कर्नल ने उससे कहा कि तुम और आराम कर लो लेकिन उस मेजर ने जिद ठान ली कि मैं उस पहाड़ी को कब्जे से छुड़ाकर ही दम लूंगा। ऐसा था हमारी फौज का जज्बा।
टाइगर हिल की लड़ाई सबसे निर्णायक थी क्योंकि वो द्रास सेक्टर का सबसे ऊंचा और अहम प्वाइंट था जहां पाकिस्तान कब्जा कर चुकी था। यहां से पाकिस्तान को हटाने का मतलब था कि द्रास के सबसे ऊंचे प्वाइंट पर एक बार फिर भारतीय कब्जा। सेना के लिहाज से टाइगर हिल फतह करना सबसे बड़ी चुनौती थी। इस लड़ाई के लिए जुलाई के पहले हफ्ते में सेना ने किलेबंदी करना शुरू कर दिया और 4 जुलाई को आखिरी हमला किया गया। मेरी आंखों के सामने लांचरों से एक के बाद एक रॉकेट दागे जा रहे थे। एक मिनट में 21 रॉकेट। कान फाड़ देने वाली आवाज और तेजी के साथ दुश्मन की ओर जाते रॉकेट। पाकिस्तानी सैनिकों की खैर नहीं थी। भारतीय फौज लगातार पाकिस्तानी सैनिकों को निशाना बनाती दिख रही थी लेकिन देर शाम होते-होते पाकिस्तान ने भी जवाबी कार्रवाई की और अपनी तरफ से गोले दागने शुरू कर दिए। ठीक उसी जगह पर जहां भारतीय फौज ने अपनी पोजीशन ली हुई थी। इसी पोजीशन के आसपास मैं और मीडिया के तमाम साथी भी मुस्तैद थे। यही मौका था लड़ाई को इतने नजदीक से देखने का। तभी एक बम हमारे बेहद नजदीक आकर गिरा। तुरंत वहां पर अफरा-तफरी मच गई।
कहां जाएं, किधर जाएं ये किसी को समझ नहीं रहा था। मैं और मेरे कैमरामैन किसी बंकर की तलाश में भागे। इस वक्त तक बाहर अंधेरा हो चुका था। रात भर बाहर आसमान में जबरदस्त फायरिंग होती रही। द्रास का वो आसमान मैं कभी नहीं भूल सकता। ऐसा लग रहा था कि आसमान में दीवाली मनाई जा रही थी। जब कोई बड़ा बम गिरता तो पूरी धरती कांप जाती। पूरी रात ऐसे ही कटी। टाइगर हिल की लड़ाई पूरी रात चली। हम भी पूरी रात जंग के मैदान की सीधी तस्वीर कैमरे में कैद करते रहे। तड़के सेना के एक अफसर ने सभी को एक अच्छी खबर दी। उसने कहा कि टाइगर हिल पर कभी भी हमारा कब्जा हो सकता है। हमारे लिए इशारा साफ था तिरंगा कभी भी टाइगर हिल पर लहराने के लिए तैयार था। ये वो वक्त था जब गोलियों और धमाके की आवाज से पूरा इलाका अब भी लगातार गूंज रहा था। पूरी हवा में बारूद की गंध थी। 5 जुलाई की वो सुबह मैं कभी नहीं भूल सकता जब डेढ़ महीने से लगातार लड़ रहे हमारे जवानों की आंखों में चमक दिखी।
सुबह होते-होते पूरा इलाका भारत माता की जय के नारों से गूंज रहा था। टाइगर हिल फतेह करने के बाद जब मैंने सिख रेजीमेंट के जवानों से मुलाकात की तो मुझे उन्होंने बताया कि कई सिपाहियों ने आमने-सामने की लड़ाई भी लड़ी। टाइगर हिल जाने के बाद पाकिस्तान फौज को लग चुका था कि सौदा महंगा पड़ा। अब तो इस लड़ाई से पीछे हटने का तरीका खोजा जाने लगा। मैं उस वक्त द्रास में ही था। जंग के मैदान पर ही हमें ऐहसास होने लगा था कि पाक अब पीछे हट जाएगा। तभी खबर आई कि नवाज शरीफ ने सरहद से फौज हटाने का फैसला कर लिया है। लेकिन द्रास, मस्को और बटालिक में लगातार गूंजती तोप की आवाज से ये लग रहा था कि पाकिस्तानी सेना शरीफ से ज्यादा जनरल मुशर्रफ की सुन रही है। ये लड़ाई अगले दो हफ्तों तक जारी रही लेकिन पाकिस्तान के हौस्ते पस्त हो चुके थे। एक-एक करके भारतीय सेना उसे खदेड़ती जा रही थी। विजय हमारी ही हुई।
और पढ़िए। …………